फसल अवशेष प्रबंधन तकनीक: किसानों को पराली जलाने की जरूरत नहीं पड़ेगी; मिट्टी की उर्वरता बढ़ेगी, प्रदूषण नहीं होगा

फसल अवशेष प्रबंधन तकनीक: किसानों को पराली जलाने की जरूरत नहीं पड़ेगी; मिट्टी की उर्वरता बढ़ेगी, प्रदूषण नहीं होगा

हमारे देश में कृषि उत्पादन में वृद्धि के साथ-साथ मशीनीकरण और फसल अवशेषों की मात्रा भी बढ़ी है। किसान धान और गेहूं की फसल मुख्य रूप से हार्वेस्टर से काटते हैं। लेकिन, धान की कटाई के बाद अगली फसल की बुआई या रोपण के लिए बहुत कम समय बचा होने के कारण किसान जल्दबाजी में पराली जला देते हैं। इससे पर्यावरण और खेतों की मिट्टी को नुकसान पहुंचता है। बायोमास तकनीक के तहत बायोमास का प्रबंधन करके उसे हमारे फायदे में बदला जा सकता है।

आजकल ज़्यादातर किसान हार्वेस्टर से फसल काटते हैं, जिससे फसल अवशेष (जिसे पुआल या ठूंठ भी कहते हैं) खेतों में ही रह जाते हैं। इसका इस्तेमाल करने के बजाय, किसान ज़्यादातर खेतों में पराली जला देते हैं। किसानों को शायद ही पता हो कि वे पराली के साथ-साथ अपने खेतों में पोषक तत्वों को भी जला रहे हैं। इसके अलावा, पराली जलाने से मिट्टी में पाए जाने वाले मित्र कीट भी नष्ट हो जाते हैं। इस तरह मिट्टी की उर्वरता कम हो जाती है।

देश में सरकार, गैर-सरकारी संगठन (एनजीओ) के साथ-साथ व्यक्ति भी इस समस्या से निपटने के तरीके खोज रहे हैं। उनका उद्देश्य पराली की समस्या का समाधान खोजना और उसके बाद होने वाली समस्याओं से बचना है। भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (आईएआरआई), पूसा के कृषि अभियांत्रिकी विभागाध्यक्ष और फसल अवशेष प्रबंधन के नोडल अधिकारी डॉ. इंद्रमणि मिश्रा ने रूरल वॉयस एग्रीटेक शो में बायोमास प्रबंधन तकनीक के बारे में जानकारी साझा की। आप ऊपर दिए गए वीडियो लिंक पर क्लिक करके शो का यह एपिसोड देख सकते हैं।

डॉ. मिश्रा ने कहा कि हमारे देश में कृषि उत्पादन बढ़ने के साथ-साथ मशीनीकरण और फसल अवशेष की मात्रा भी बढ़ी है। किसान धान और गेहूं की फसल मुख्य रूप से हार्वेस्टर से काटते हैं। लेकिन, धान की कटाई के बाद अगली फसल की बुआई या रोपाई के लिए कम समय बचा होने पर किसान जल्दबाजी में पराली जला देते हैं। पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में पराली जलाने से दोहरा नुकसान होता है। एक तो इससे दिल्ली-एनसीआर समेत कई अन्य इलाकों में प्रदूषण की भयावह समस्या पैदा होती है। पराली जलाने से निकलने वाला धुआं वातावरण को जहरीला बना देता है और लोगों को सांस लेने में दिक्कत होती है। दूसरा, खेतों में पराली जलाने से मिट्टी को जैविक नुकसान होता है। उपयोगी सूक्ष्म जीव और मित्र कीट नष्ट हो जाते हैं, जिससे मिट्टी की उर्वरता कम हो जाती है।

बायोमास तकनीक के तहत बायोमास का प्रबंधन दो तरह से किया जा सकता है। पहला है इन सीटू फसल अवशेष प्रबंधन, जिसके तहत फसल अवशेषों का प्रबंधन खेत के अंदर ही किया जाता है। फसल अवशेषों के प्रबंधन का सबसे कारगर साधन वेस्ट डीकंपोजर है। इसे फसल अवशेषों पर छिड़कने से वे खाद में बदल जाते हैं। इसके अलावा फसल प्रबंधन के लिए नई कृषि मशीनें भी विकसित की गई हैं। ये मशीनें न सिर्फ फसल अवशेषों की समस्या से निजात दिलाती हैं, बल्कि मिट्टी को अच्छी खाद भी देती हैं। सुपर स्ट्रा मैनेजमेंट सिस्टम (एसएमएस) या स्ट्रा चॉपर फसल अवशेषों को बारीक काटकर खेत में फैला देता है। इसके बाद हैप्पी सीडर का इस्तेमाल कर गेहूं की बुआई की जाती है। फसल अवशेषों के टुकड़ों को मल्चर की मदद से मिट्टी में मिलाया जा सकता है, जिससे अच्छी खाद बनती है। फसल अवशेष प्रबंधन के लिए जीरो ड्रिल, रोटावेटर, रीपर-बाइंडर और कुछ स्थानीय स्तर पर उपयोगी सस्ती मशीनों का भी इस्तेमाल किया जा सकता है।

बायोमास के प्रबंधन का एक और तरीका है एक्स सिटू फसल अवशेष प्रबंधन। इसमें फसल अवशेषों को खेत से बाहर निकालकर खाद या पशुओं के चारे में बदलना शामिल है। इसके अलावा, फसल अवशेषों को बेलर मशीनों में संपीड़ित किया जा सकता है और बिजली जनरेटर इकाइयों को आपूर्ति की जा सकती है, जिससे यह राजस्व का एक स्रोत बन जाता है।

डॉ. मिश्रा ने बताया कि सरकार ने कंबाइन हार्वेस्टर के साथ सुपर एक्स्ट्रा मशीन लगाना अनिवार्य कर दिया है, ताकि कटाई के दौरान पराली का आकार छोटा किया जा सके और हैप्पी सीडर व जीरो टिल से गेहूं की बुआई में कोई दिक्कत न आए।

डॉ. मिश्रा ने बताया, “हमारे संस्थान ने पूसा डीकंपोजर नाम से एक बायो-एंजाइम विकसित किया है। इसे किसानों को कैप्सूल या तरल रूप में दिया जाता है। इन कैप्सूल से बना घोल धान की पराली को घोल देता है। इसके अलावा, डीकंपोजर जैविक खाद बनाने में मदद करता है, जिससे मिट्टी की उर्वरता बढ़ती है। इसके इस्तेमाल से किसानों को पराली जलाने की जरूरत नहीं पड़ती।”

आईएआरआई के वैज्ञानिक ने बताया कि पराली को खाद में बदलने के लिए एक एकड़ में 10 लीटर घोल की जरूरत होती है। इस घोल को 200 लीटर पानी में मिलाकर पराली वाले खेत में छिड़कना चाहिए और फिर पराली को रोटावेटर से मिट्टी में मिला देना चाहिए। पराली को मिट्टी में दबाना चाहिए और फिर थोड़ा पानी डालना चाहिए। करीब 15 दिन में पराली गलने लगती है। इसके बाद आप अगली फसल बो सकते हैं और करीब 25 दिन में पराली गल जाएगी। इस प्रक्रिया के बाद मिट्टी में कार्बन, नाइट्रोजन और फास्फोरस मिल जाता है, जिससे मिट्टी की उर्वरता बढ़ती है।

दिल्ली के हिरनकी गांव के किसान उमेश सिंह, जिन्होंने फसल अवशेष प्रबंधन तकनीक अपनाई है, कहते हैं, “हमने अपने 48 एकड़ खेत में धान की कटाई के बाद पूसा डीकंपोजर का इस्तेमाल किया। फिर हमने धान की पराली को मिट्टी में दबाया और थोड़ा पानी डाला। पराली धीरे-धीरे घुलने लगी और 25 दिनों में पूरी तरह घुल गई। इससे गेहूं की बुवाई बहुत आसान हो गई और हमें अच्छी फसल मिली।”

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