जैव-उर्वरक नीले-हरे शैवाल और एजोला मिट्टी में वायुमंडलीय नाइट्रोजन को स्थिर करते हैं और फसलों को लाभ पहुँचाते हैं। इसके अलावा, वे ऐसे पदार्थ बनाते हैं जो मिट्टी में कार्बनिक पदार्थ को बढ़ाते हैं। ये कम लागत पर फसलों को पोषक तत्व प्रदान करने के बेहतर विकल्प हैं – जो पर्यावरण और आर्थिक दोनों दृष्टि से फायदेमंद हैं।
भारत में कृषि अनुसंधान संस्थान कृषि में जैविक उत्पादों के बारे में संभावनाओं की तलाश कर रहे हैं। सूक्ष्म शैवाल ऐसी ही एक संभावना है जो अपने निहित लाभों के साथ टिकाऊ खेती को बढ़ावा देती है – कम लागत, मिट्टी को समृद्ध करने वाली, स्वास्थ्यवर्धक और पर्यावरण के अनुकूल। रूरल वॉयस एग्रीटेक शो के इस नए एपिसोड में ऊपर दिए गए वीडियो में नील-हरित शैवाल और अजोला के विभिन्न पहलुओं पर एक नज़र डाली गई है – इनका उत्पादन कैसे किया जाता है, इनका उपयोग कैसे किया जाता है और इनके क्या-क्या लाभ हैं। इस एपिसोड में रूरल वॉयस के प्रधान संपादक हरवीर सिंह ने भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (IARI), पूसा के माइक्रोबायोलॉजी विभाग के प्रमुख डॉ. सुनील पब्बी से बात की। आप दिए गए वीडियो पर क्लिक करके शो देख सकते हैं।
डॉ. सुनील पब्बी के अनुसार, नीले-हरे शैवाल, जिन्हें साइनोबैक्टीरिया भी कहा जाता है, जलीय पौधों का एक समूह है। काई की तरह दिखने वाले ये स्वपोषी होते हैं – यानी ये अपना भोजन खुद बना सकते हैं। ये वायुमंडलीय नाइट्रोजन को जमीन में स्थिर करते हैं और फसलों को लाभ पहुँचाते हैं। इसके अलावा, ये ऐसे पदार्थ बनाते हैं जो मिट्टी में कार्बनिक पदार्थ को बढ़ाते हैं। ये कम लागत पर फसलों को पोषक तत्व प्रदान करने के लिए बेहतर विकल्प हैं – जो पर्यावरण और आर्थिक दोनों दृष्टि से फायदेमंद हैं।
डॉ. पब्बी ने बताया कि शोध संस्थान ने धान के लिए दो जैव उर्वरक विकसित किए हैं – नील-हरित शैवाल और अजोला। दोनों को धान के साथ उगाया जा सकता है। ये दोनों जैव उर्वरक धान की फसल में नाइट्रोजन को स्थिर करते हैं। किसान इन्हें खुद भी विकसित कर सकते हैं। धान की फसल में नील-हरित शैवाल के विकास के लिए अनुकूल परिस्थितियां होती हैं, क्योंकि धान के खेत हमेशा पानी से भरे रहते हैं। नील-हरित शैवाल की मदद से धान की फसल में प्रति एकड़ 15-25 किलोग्राम नाइट्रोजन स्थिरीकरण होता है। इनके इस्तेमाल से मिट्टी में कार्बनिक पदार्थ और अन्य वृद्धि-प्रेरक रसायन जैसे ऑक्सिन, जिबरेलिन आदि की मात्रा बढ़ जाती है।
धान में नील-हरित शैवाल का उपयोग कैसे करें
डॉ. पब्बी ने बताया, “धान की बुआई के एक सप्ताह के अंदर नील-हरित शैवाल का प्रयोग किया जाता है। प्रति एकड़ 4-5 किलो शैवाल खाद का प्रयोग किया जाता है और अगर अधिक मात्रा में प्रयोग किया जाए तो भी कोई नुकसान नहीं होगा।” उन्होंने बताया कि नील-हरित शैवाल का प्रयोग करते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि खेत में 10 दिन तक पानी भरा रहे। उन्होंने बताया, “अगर किसान 4-5 सीजन तक शैवाल खाद का प्रयोग करता है तो खेत में नाइट्रोजन स्थिरीकरण करने वाले जीवाणुओं की संख्या इतनी बढ़ जाती है कि नील-हरित खाद के छिड़काव की जरूरत ही नहीं पड़ती। इस तरह धान की खेती में लागत कम होने के साथ-साथ पैदावार भी बढ़ती है।”
अजोला खेती और पशुपालन दोनों के लिए फायदेमंद
डॉ. पब्बी ने बताया, “नील-हरित शैवाल की तरह अजोला भी एक हरा, पौष्टिक, तेजी से बढ़ने वाला जलीय फर्न है, जो तालाबों, झीलों और शांत जल में तैरते हुए वातावरण से नाइट्रोजन को सोखता है। अजोला का उपयोग हरी खाद और धान की फसल में दोहरी फसल के रूप में किया जाता है। इसके उपयोग से फसल में प्रति एकड़ 15-25 किलोग्राम नाइट्रोजन स्थिर करने में मदद मिलती है। अजोला जैव-उर्वरक की सबसे खास बात यह है कि यह मिट्टी में जल्दी सड़ जाता है और पौधों को नाइट्रोजन प्रदान करता है।”
फसलों में हरी खाद के रूप में अजोला का उपयोग
डॉ. पब्बी ने बताया कि अजोला को गड्ढा विधि, टैंक विधि और एचडीपीई तकनीक अपनाकर नर्सरी में उगाया जा सकता है। “सतह समतल होनी चाहिए ताकि पानी की गहराई पूरे क्षेत्र में एक समान रहे।” पानी की गहराई 10 सेमी होनी चाहिए। अजोला का उत्पादन एक सप्ताह के भीतर शुरू हो जाता है। डॉ. पब्बी ने फिर धान की फसल के साथ अजोला उगाने के तरीके के बारे में विस्तार से बताया।
अजोला भी कम लागत वाला पौष्टिक चारा है
जयपुर के धनौता गांव के अजोला उत्पादक किसान गजानंद अग्रवाल कहते हैं, “फसलों में पोषक तत्वों के अलावा अजोला का इस्तेमाल चारे के रूप में भी किया जाता है। इसमें 25-30 प्रतिशत प्रोटीन होता है, जो किसी भी अन्य चारे से कहीं ज़्यादा है। आप गाय, भैंस और बकरी जैसे सभी तरह के मवेशियों को अजोला खिला सकते हैं। अगर आप दुधारू मवेशियों को अजोला खिलाते हैं, तो इससे न सिर्फ़ उनका शारीरिक विकास तेज़ होगा, बल्कि दूध का उत्पादन भी 15-20 प्रतिशत तक बढ़ जाएगा।”
अजोला से चारे की लागत में 40-50% की बचत होती है
गजानंद कहते हैं, “अगर पशुओं को सांद्रित भोजन (अनाज और खली) की जगह अजोला दिया जाए तो चारे की लागत में 40-50 प्रतिशत की बचत हो सकती है।” उनके अनुसार, अजोला को उनके चारे में 1:1 के अनुपात में मिलाया जा सकता है। उन्होंने बताया कि बाजार में पौष्टिक चारा 25 रुपये किलो मिल रहा है। अगर किसान अजोला उगाता है तो प्रति किलो इसकी उत्पादन लागत 2-3 रुपये आती है। इसके अलावा, अजोला के उत्पादन में बहुत अधिक पानी की आवश्यकता नहीं होती। इस प्रकार किसान अपनी बंजर भूमि या खाली भूखंडों में अजोला उगाकर अपने चारे की लागत कम कर सकता है।